Friday, March 2, 2012

'सेविंग फेस' महिलाओं के लिए आशा की नई कहानी है

पिछले साल ' पाकिस्तांस तालिबान जनरेशन' नामक डाक्यूमेंट्री के लिए शर्मीन ओबैद चिनॉय को इंटरनेशनल एम्मी अवार्ड से सम्मानित किया गया था. वृत्तचित्र में दिखाया गया था कि कैसे तालिबान अमेरिका पर किए गए 9/11 के हमले के बाद नए लड़ाकों की भर्तियां करता हैं.

इस साल उन्होंने डेनियल जंग के साथ मिलकर 'सेविंग फेस' वृत्तचित्र पाकिस्तान की उन औरतों को पर बनाया है जो चेहरे पर तेज़ाब डाले जाने की शिकार हुई हैं या होती है इसमें एक पाक मूल के ब्रिटिश प्लास्टिक सर्जन की भूमिका केंद्र में है, जो ब्रिटेन से आकर पाकिस्तान में इन महिलाओं का इलाज करता है. इस डाक्यूमेंट्री को साल 2012 का सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र का पुरस्कार मिला है.



33 साल की शर्मीन ने सेविंग फेस और 'पाकिस्तांस तालिबान जनरेशन' के बारे बात की और बताया कि वो ब्राज़ील की पृष्ठभूमि पर बनी 'सिटी ऑफ़ गॉ़ड' क्यों बनाना चाहती हैं. प्रस्तुत है साक्षात्कार के मुख्य अंश:




प्रश्न: सेविंग फेस पर डेनियल के साथ मिलकर काम
कैसे किया?
उत्तर: पिछले साल की शुरुआत में डेनियल ने मुझसे संपर्क किया. उसे इस विषय पर साथी की तलाश थी और हम लोग पहले भी इस विषय पर कई बार बात कर चुके थे, इसलिए मुझे लगा ये अच्छा मौका है साथ काम करने का. यह विषय अपने आप में ही काफी उत्तेजक था. क्योंकि दक्षिणी पंजाब में महिलाओं के चेहरे पर तेज़ाब डालने की घटना एकदम आम है और इससे पूरे साल में तक़रीबन 100 महिलाओं की जिंदगी ख़राब होती है. यह फिल्म एक ऐसे पाक मूल के ब्रिटिश प्लास्टिक सर्जन डॉ. मोहम्मद जवाद के बारे में है, जो ब्रिटेन से पाकिस्तान आता है और पीड़ित महिलाओं के जले हुए चेहरों को बचाने की कोशिश करता है. 'सेविंग फेस' महिलाओं के लिए आशा की कहानी भी है. क्योंकि इसमें एक महिला वकील, एक पीड़ित के हक के लिए लड़ती है और उसका बुरा हाल करने वालों को उनके अंजाम तक भी पहुंचती है.




प्रश्न: पिछले साल 'पाकिस्तांस तालिबान जनरेशन' ने इंटरनेशनल एम्मी अवार्ड जीता, इस फिल्म के निर्देशक डेनियल ऐज के साथ काम करने की शुरुआत कैसे हुई.

उत्तर : 'पाकिस्तांस तालिबान जनरेशन' के बारे में सोचते हुए मैं यूके में एक दिन चैनल-4 पर एक व्यक्ति को देख रही थी, जिसकी कलात्मक संवेदना और सौंदर्य शैली मुझसे एकदम मेल खा रही थी. मुझे लगा कि डेनियल से अच्छा साझेदार इस फिल्म के लिए कोई नहीं हो सकता है. हम दोनों में ही कहानी कहने का जुनून है. उनके साथ काम करने का बहुत शानदार अनुभव मिला. हम दोनों ने कहानी को बड़ी ही संवेदना के साथ साझा किया और उसे फिल्म का रूप दिया बाकी आप जानते हैं ये हमारे करियर की सबसे उम्दा डाक्यूमेंट्री साबित हुई. हालांकि एम्मी अवार्ड जीतने को लेकर मेरे बड़े कड़वे अनुभव भी रहे. जिस दिन ये अवार्ड समारोह था. उसी दिन मेरे पिता इस दुनिया से रुखसत कर गए. मेरी बहन का कॉल आया. मैंने पहली फ्लाईट पकड़कर कराची का रुख किया. जब मैं प्लान में घुस रही थी, तभी मुझे डेनियल का कॉल आया.कि हमारी फिल्म ने अवार्ड जीत लिया है.



प्रश्न: आपने इस संवेदन शील मुद्दे पर बात करने के लिए लोगों को किस तरह तलाश किया।
उत्तर : हमारी क्रू टीम ने छह महीने तक घूम-घूमकर लोगों से बात की ,उनको भरोसे में लिया. हमने मदरसों और तालिबान के साथ कुछ अच्छे रिश्ते कायम करने की भी कोशिश की. हालांकि इस काम ने हमारा कुछ समय जरूर लिया, जिससे कि उनके दरवाजे हमारे लिए खुल जाएं. मेरी हमेशा से ही कोशिश रही है कि नीचे के लोगों के साथ रहकर काम करना चाहिए क्योंकि वहीँ से आपको नए स्त्रोत मिलेंगे. हमारे लिए चिंता का सबसे बड़ा कारण '
पाकिस्तांस तालिबान जनरेशन' फिल्म में तालिबान द्वारा अपहरण किए गए लोगों की शूटिंग को लेकर था। ऐसा कई बार हुआ जब हमें साक्षात्कार रद्द करने पड़े क्योंकि हमारा स्त्रोत विश्वसनीय नहीं था. हमारे एक बार अच्छे संबंध बन गए तो हमारी पहुंच मदरसे तक भी हो गई थी. हमने मदरसे को अपनी बात कहने की पूरी आजादी दे रखी थी. बच्चे और मदरसे अध्यापक हमसे बात करने को उत्सुक थे और उन्होंने अपने हिस्से की वो कहानी बताई, जिसमे वे वाकई विश्वास करते थे. वे ये भी जानना चाहते थे कि बाकी बची दुनिया में क्या हो रहा है.



प्रश्न: पाकिस्तान में इस फिल्म को शूट किया गया है, क्या आपने इसे वहां दिखाने का फैसला किया.
उत्तर : दुर्भाग्य से पाकिस्तान में डाक्यूमेंट्री फिल्म का कोई कल्चर नहीं है। वहां के टीवी चैनल भी वही दिखाते है जिसकी डिमांड होती है. दिसंबर 2011 में मैंने कराची में सर्मीन ओबैद फिल्म्स नाम का खुद का प्रोडक्शन हाउस खोला है और ये हाउस पाकिस्तानियों को नॉन-फिक्शन (वास्तविक) कहानी को कहने की प्रेरणा दे रहा है और हमें हज़ार से ज्यादा नई कहानियां भी मिली.


प्रश्न: क्या कोई ऐसी फिल्म है, जिसे आप बनाने की इच्छा रखती हैं
उत्तर :
'सिटी ऑफ़ गॉ़ड क्योंकि यह एक जीवंत फिल्म है. इसमें ब्राज़ील की झुग्गी बस्तियां दिखाई गई हैं जो हमारे कराची में भी हैं और ये शहर का दो भागों में बांटती है.ऐसी कई चीजें हैं, जो कराची से मेल खाती हैं. मुझे आशा है कि ऐसा दिन आएगा, जब मैं भी ऐसे ही विषय पर फिल्म बनाउंगी.




वॉल स्ट्रीट जर्नल से साभार: हिंदी में प्रस्तुति : अश्विनी श्रोत्रिय

Monday, October 11, 2010

भारतीय सिनेमा एवं समाज

सिनेमा पर अक्सर प्रश्न किया जाता है कि सिनेमा का सही काम क्या है। क्या सिनेमा को हमेशा देश-दुनिया के सामाजिक पहलुओं की चर्चा करनी चाहिए या फिर उसका काम आम आदमी का मनोरंजन भर करना है। दुनिया की एक बड़ी आबादी सिनेमा को केवल मनोरंजन की दृष्टि से देखना पसंद करती है। उसका अंतिम लक्ष्य केवल और केवल पैसा वसूल करना है। सामाजिक होने के बावजूद भी सामाजिक सरोकारों के सिनेमा में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं। दुनिया की एक और बड़ी आबादी है, जिसका सिनेमा से तो कोई संबंध नहीं है, लेकिन सिनेमा का उससे संबंध जरूर बनाया जाता है। यह आबादी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विपन्नताओं में जी रही है। क्या सिनेमा इन्हें इन सबसे उबार सकता है। शायदनहीं, हां लेकिन सिनेमा एक आइना दिखा सकता है, इन लोंगों के प्रति (जो विपन्न हैं), उन लोंगों को (जो समर्थ हैं)। दुर्भाग्य से भारत में इस तरह की फिल्में बनना बहुत कम हो गई, जो सामाजिक क्रांति का बिगुल बजा सकें। अगर इस तरह की फिल्में बनती भी है तो क्रांति की उष्मा क्षण भंगुर होती है। भारत के मध्यमवर्गीय परिवार के रहन-सहन में अमूलचूल परिवर्तन आए, जिसका असर सिनेमा पर भी पड़ा। विदेशी पृष्ठभूमि या महानगरीय जीवन शैली की फिल्मों को ज्यादा पसंद किया जाने लगा। हम कभी अपने आप से सवाल करें कि हमनें आखिरी फिल्म कौन सी देखी थी, जिसमें ग्रामीण परिवेश झलक मिलती हो। पुराने फिल्मकारों में सच का सामना करने की ताकत हुआ करती थी। इसी बाबत मेहबूब खान मदर इंडिया जैसी फिल्म रच पाने में सफल हुए। सत्यजीत राय ने समाज में घटने वाली हर उस चीज को अपनी फिल्मों में जगह दी, जो वास्तविकता से एकदम नजदीक थी। विमल राय, वी। शांताराम, गुरुदत्त, राज कपूर, ऋषिकेश मुखर्जी जैसे मौलिक सोचने वाले लोग उस दौर में थे, जब भारत में कोई फिल्म स्कूल नहीं हुआ करते थे। इन लोगों ने कम संसाधनों में उम्दा काम किया। ऋषिकेश मुखर्जी की हास्य फिल्में संवेदना से भरी हुई एक सोच को जन्म देती थी। लेकिन आज की हास्य फिल्में अश्लीलता, डबन मीनिंग संवाद से अटी पड़ी है। दर्शक फिल्म देखने के बाद जल्दी भूल जाता है और उससे कुछ भी हासिल नहीं कर पाता। विमल रॉय की दो आंखे बारह हाथ खूंखार कैदियों को मानवीय संवेदना से भर देने वाली फिल्म थी। मदर इंडिया जैसी फिल्में भारत के किसान की गरीबी, सूद एवं जमीदारी प्रथा का भयावह चित्रण करती हैं। बलराज साहनी अभिनीत दो बीघा जमीन, गरम कोट, अपने दौर की महान फिल्मों में से एक हैं। क्यों अब साहिर लुधयानवी जैसे गीतकार नहीं बनते, जिनके लिखे गीतों से तत्कालीन सरकारें बौखला जाती थी और न ही गुरुदत्त जैसे फिल्मकार जो अपनी जिद के आगे किसी की नहीं सुनते थे। ऐसा नहीं है कि अब अच्छी फिल्में नहीं बनती है। हाल ही में आई पीपली लाइव ने दिखा दिया कि साधारण मगर गंभीर एवं हास्य के साथ कही गई बात लोग सुनना पसंद करते हैं। नए युवा फिल्मकारों ने अपने आप को बखूगी साबित किया है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की रंग दे बसंती उस दौर में आई जब तत्कालीन भारत सरकार द्वारा पिछड़ा वर्गों के लिए ज्यादा आरक्षण देने की बात को लेकर नाराज तमाम युवा डॉक्टर एवं इंजीनियर सडक़ों पर आंदोलन कर रहे थे। इस फिल्म के संवाद जिंदगी जीने के दो ही तरीके होते हैं.... ने युवाओं में नए जोश के संचार कर दिया। चक दे इंडिया राष्ट्रीय खेल को लेकर सराहनीय प्रयास था, जिसमें चक दे इंडिया गीत खेलों के लिए राष्ट्रीय गान बन गया। लेकिन इसके बावजूद यह फिल्में दीर्घकालिक क्यों नहीं होती। 21वीं सदी के पहले दशक में हमें जरूरत है, सिनेमा में बेहतर तकनीक के साथ-साथ बेहतर सोच की। अब फिल्में सोची जाती है अंग्रेजी में, लेकिन बनती है हिन्दी में।

Monday, July 26, 2010

नए नहीं है खेल संस्थाओं के झगडे

आजादी से पहले की बात है। भारत में स्विमिंग की दो संस्थाएं काम कर रही थी। नेशनल स्विमिंग एसोसिएशन कोलकाता स्थित संस्था थी। इस संस्था को दुनिया में तैराकी की सर्वोच्च संस्था फीना ने १९३२-३३ में मान्यता दे रखी थी। भारत की दूसरी संस्था भारतीय तैराकी संघ थी, इसे भारतीय ओलिम्पिक संघ का समर्थन प्राप्त था। दोनों संस्थाएं किसी भी बड़ी प्रतियोगिता में अपने -अपने खिलाड़ियों को भेज देती थी। इस तरह दो संस्थाओं की वजह से देश-विदेश में असमंजस की स्थिति पैदा होती थी। दोनों अपने अस्तित्व को बचाने के लिए आपस में टकराती रहती थी। १९४८ में भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के इस मामले में दखल देने के बाद दोनों संस्थाओं को एक करके भारतीय तैराकी संघ बनाया।

इस घटना से यह पता चलता है कि भारत में खेल संस्थाओं के विवाद कोई नई बात नहीं हैं, हालांकि तब जब एक खेल कि दो संस्थाएं अपनी-अपनी दावेदारी पेश करती हों। आजकल हॉकी की संस्थाओं का झगड़ा जगजाहिर है। भारतीय हॉकी संघ एवं हॉकी इंडिया दोनों ही इन दिनों हॉकी पर अपना अधिकार जता रहीं हैं। आईएचएफ को उनके सचिव पर एक निजी चैनल के द्वारा स्टिंग 'ऑपरेशन चक दे' के तहत खिलाड़ियों के चयन के लिए रिश्वत लेते हुए पकड़े जाने पर बर्खास्त कर दिया था। हॉकी संघ के बर्खास्त होने के बाद हॉकी इंडिया बनाया गया, हालांकि कई राज्य हॉकी संघ एवं अकादमी इसके अस्तित्व को सिरे से ख़ारिज कर चुकी हैं। बार-बार इसके सदस्यों और अध्यक्ष पद पर बैठे लोगों पर सवाल किए जाते हैं कि वे सब असवैंधानिक रूप से इन पदों पर विराजमान हैं।

भोपाल में ६३वी रंगास्वामी कप टूर्नामेंट मध्य प्रदेश खेल मंत्रालय व आइएचएफ के तत्वाधान में सफलतापूर्वक आयोजित की गई। इस टूर्नामेंट के होने से हॉकी इंडिया कि भौहें तन गईं। उनका कहना था कि हॉकी इंडिया इस टूर्नामेंट को अवैध करार देती हैं तथा साथ ही साथ किसी भी खिलाड़ी ने इसमें हिस्सा लिया, तो वे उनको बैन कर देंगे। हाल ही में इंडियन हॉकी फेडरेशन ने हॉकी इंडिया में होने वाले आगामी चुनावों पर एतराज जताते हुए कहा कि बिना हॉकी संघ को लेकर चुनाव करना गलत है। यह आइओए, सरकार एवं हॉकी इंडिया की मिली भगत है। इसके खिलाफ हम न्यायालय जाने वाले हैं। इन घटनाक्रम से पता चलता है कि विवाद इतनी जल्दी ख़त्म होने वाला नहीं।

सन १९७१ में भारतीय वॉलीबाल संघ के चुनाव होने के बाद इसके कुछ सदस्य नाराज हो गए और अपना अलग संगठन बना लिया था, लेकिन यह फूट ज्यादा दिनों तक नहीं रही। कई बार देखने में आता है कि खेल प्रशासक अपने निजी स्वार्थों एवं सत्ता कि चाह में खेल का अहित होने देते हैं। हॉकी की दो संस्थाओं कि लड़ाई सिर्फ सत्ता और स्वाभिमान कि लड़ाई रह गई है। इसके बीच में खेल कहां आता है, यह शायद खेल को भी नहीं पता।

Tuesday, July 28, 2009

क्या विदेशनीति में इच्छा शक्ति की कमी है !


लोगों का कहना है कि भारत अपने आप को मिस्त्र में पाकिस्तान के हाथों बेच आया है ! क्या ये सब कहना वाजिब है ? शायद हो भी सकता है ! यहाँ बेचना शब्द इतना ठीक नही हैं ! यहाँ हम कह सकते है की भारत ने अपने महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दे से मुहँ मोड़ लिया , जबकि आतंक वाद का मुद्दा केन्द्र में है ! प्रधानमंत्री , पाक के साथ इस बात पर सहमत हो गए की आतंकवादी घटनायों के मद्देनज़र भारत पाक से बातचीत बंद नही करेंगा !

इसका मतलब क्या समझा जाए ? , कि आतंकी घटनाये होती रहेंगी लेकिन पाक के साथ हमारे सम्बन्ध बने रहेंगे , और यदि हमने बातचीत बंद की भी तो पाकिस्तान इस साझा पत्र का हवाला देंगा की आपने तो कहा था कि
बातचीत बंद नही होंगी , क्या हमारे प्रधानमंत्री भूल गए कि २६/११ के हमले में पाकिस्तान के आतंकी शामिल थे ? , क्या पाक सरकार की बॉडी आईएसआई का हाथ नही था ? इसे भी भूल गए ?

तो फिर यह भूल क्यों हुई ? , क्या इसमे किसी तीसरी ताकत का हाथ था जिसने हमें झुकने पर मजबूर किया ! हिलेरी क्लिंटन ने साफ साफ कहा की अमेरिका की भारत-पाक रिश्तों को जोड़ने में कोई भूमिका नही रही , लेकिन फिर भी उन्होंने ने इस पहल का स्वागत किया , अब बात फिर से भारत पाक की करे तो आखिरकार भारत के प्रधानमंत्री की कौन सी मजबूरी थी ? , क्या भारत का पाकिस्तान के बिना काम नही चल रहा है ! बातचीत की जल्दी हमें तो नही थी ! जो भी नुकसान हो रहा था पाक का हो रहा है , उनके उद्योगपतियो के दबाव बने हुए थे, कि भारत पाक के बीच व्यापार फिर से शुरू किया जाए और कलाकारों का आना जाना लगा रहे ! तो क्यों हमने फिर से पाक से यारी निभा ली , जबकि प्रधानमंत्री को आतंकियों पर कार्यवाही करने की मांग करनी चाहिए थी ! ऊपर से पाक ने बलूचिस्तान में आतंकी गतिविधियों में भारत का हाथ है इसका जबाव मनमोहन से माँगा , और इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री खामोश रहे !

मैं कोई विदेश नीति का जानकर नहीं हूँ पर एक बात कहना चाहता हूँ की कुछ सालों से हर बाहरी मुद्दे पर हमारी विदेश नीति विफल रही है ! प्रधानमंत्री को यह पता है कि कांग्रेस को जनाधार आतंकवाद के मुद्दे पर ही मिला है और जो रवैया पिछली सरकार का पाक के प्रति था उसे लोगों ने सराहा था ! परन्तु अब अचानक से हाथ मिला लेना , भारत की जनता के साथ सिर्फ़ विश्वासघात को दर्शाता है ! क्योंकि हर कोई जानता है जब -जब पाक से दोस्ती करने जाते है वह पलटकर काटता है और पाक को भी पता है कि भारत किसी भी घटना को भूलकर फिर से दोस्ती करने को तैयार हो ही जायेगा !


"एस एम् कृष्णा" केवल नाम के विदेशमंत्री है ,
उनका काम सिर्फ़ साफ सुथरे कपड़े पहनकर बैठना है ,
विदेश के सारे मामले पीएम्ओ के तों में है !
-- यशवंत सिन्हा (नेता , बीजेपी )

Saturday, July 18, 2009

ये यूपी की माया है !


मुझे नही पता कि कितने लोग मायावती के फैसले से सहमत होंगे कि उन्होंने रीता बहुगुणा को जेल भिजवा दिया , लेकिन मेरा यह कहना है कि क्या मायावती भी इतनी पाक साफ है कि कभी किसी भी तरह कि अभद्र भाषा का प्रयोग नही करती ! अगर सिर्फ़ मायावती की बात करें तो इस समय वह सत्ता के धुंए में मदहोश है ! और उन्हें इस समय कोई अपने आस-पास नही दिखाई देता , और उनके पास जी-हुजूरी वाले लोगों की फौज है , उनके पास ऐसा कोई आदमी नही है जो उनसे ये कहे कि बहनजी यह ग़लत है इसे ना करें , क्योंकि बहनजी को ना फ़रमानी मंजूर नही ! यूपी में लगने वाली उनकी मूर्तियों के पीछे क्या रहस्य है यह किसी को नहीं पता , आखिर वह मूर्तियाँ बनाकर क्या साबित करना चाहती है , क्या उन्हें यह लगता है कि वह आज जिस कुर्सी पर बैठी है उस पर वह हमेशा बनी रहेंगी , या फिर उन्हें पता नही कि अगर कल को कोई नया मुख्यमंत्री आया , तो उन हजारों करोडो की लागत से बनी मूर्तियों को ढहा देंगा ! तो फिर ये इतनी फालतू कसरत क्यों ? और इतने पैसे की बर्बादी क्यों ?
क्या उन्हें पता है दलितों की पार्टी होने के बावजूद सबसे ज्यादा दलितों की हालत यूपी में ही ख़राब है ! क्यों वो इस बात को नहीं समझती कि अगर वह जितना पैसे फालतू के निर्माण कार्य में लगा रही है उतना अगर गरीबों के लिए लगाया होता तो स्थिति थोडी सुधर सकती है ! क्योंकि मेरे ख्याल से और ये बात सभी जानते होंगे कि दलित नेताओ की मूर्तियों से किसी भी दलित का भला होने से रहा , या फिर अपने जन्मदिन पर करोडो रुपए का खर्चा करके किसी दलित का का चूल्हा नही जल सकता , जरा सोचिये एक तरफ़ मायावती अपना बड़ा से केक काट रही है , दावतें दी जा रही है और दूसरी तरफ़ बच्चे रात को बिना खाने खाए सो जाते है ! कितना अजीब है कि दलित मुख्यमंत्री तक इनकी आवाज नही पहुँच पाती ! ऊपर से बहन जी प्रधानमंत्री बनने का सपना पाले हुए है ! अभी भोपाल में "माखन लाल विश्वविद्यालय" में पत्रकारिता के लिए प्रवेश परीक्षा देने गया था , वहां पर झाँसी से आए एक मित्र ने बताया की सपा के गुंडों से जनता बुरी तरह से त्रस्त आ चुकी थी , इसीलिए जनता ने मायावती को चुना लेकिन स्थिति जस की तस रही वहीं काम अब बीएसपी वाले कर रहे है ! उसके बाद भी मायावती बड़े बड़े दावे करती रहती है ! एनडीटीवी के पत्रकार कमाल खान का कहना है की दरअसल मायावती बड़े बड़े बयान इसीलिए देती है कि वो अपने आप को बड़े बड़े नेताओ से भी बड़ा बताना चाहती है , मायावती हर बात को अपने ऊपर व्यक्तिगत ले लेती है और बार-बार प्रेस कांफ्रेंस करके बड़े बयान देती है ! खैर बात इतनी सी है की इस तरह की सामंती शाही का लोकतंत्र में कोई स्थान नही है ! मायावती को समझना चाहिए कि लोकसभा के चुनाव में उनका जो हश्र यूपी में हुआ उससे साफ पता चलता है कि जनता उनके काम से खुश नही है !

Friday, July 17, 2009

नया आवरण !

मुझमें और मेरी आत्मा में क्या फर्क है ?
शायद ये कि मैं दिखता हूँ , वह दिखती नहीं
शायद ये कि मैं अपवित्र हूँ , और वो पवित्र
शायद ये कि मर सकता हूँ मैं एक दिन , लेकिन वो नहीं !

या शायद ये कि इस जहाँ में मेरे साथ है मेरे अपने लेकिन , उसके साथ कोई नहीं !
क्यों तुम गुमनाम सी चुपचाप सी देखती रहती हो वो सब ? , जो मैं दिन-भर करता हूँ
क्यों तुम किसी मोड़ पर आकर यह नहीं कहती कि मैं कर रहा हूँ जो भी , वह ग़लत है या फिर सही !
या फिर तुम्हे कोई फर्क नही पड़ता कि मुझे मिले स्वर्ग या नरक , जाना होगा तुम्हे मुझे एक दिन छोड़कर,
और तज लोगी फिर से कोई नया आवरण !

Thursday, April 9, 2009

शून्य


पने
ही आप से , द्वंद है मेरा
है गतिरोध , अपने आप से
क्यों शून्य बनाकर तुमने
छोड़ दिया इस जहाँ में !

इस शून्य को एक बनाने में
जतन किए थे , मैंने कितने
एक बिन्दु से चलता था मैं
घूमकर आ जाता उस पर

हसरत मेरी जाती रही , हर सपना मेरा टूटता रहा !
इस शून्य की खाई में गिरकर , पल पल मरता रहा !
इस भीड़ मे आजकल कौन सुनता है !

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