Monday, October 11, 2010

भारतीय सिनेमा एवं समाज

सिनेमा पर अक्सर प्रश्न किया जाता है कि सिनेमा का सही काम क्या है। क्या सिनेमा को हमेशा देश-दुनिया के सामाजिक पहलुओं की चर्चा करनी चाहिए या फिर उसका काम आम आदमी का मनोरंजन भर करना है। दुनिया की एक बड़ी आबादी सिनेमा को केवल मनोरंजन की दृष्टि से देखना पसंद करती है। उसका अंतिम लक्ष्य केवल और केवल पैसा वसूल करना है। सामाजिक होने के बावजूद भी सामाजिक सरोकारों के सिनेमा में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं। दुनिया की एक और बड़ी आबादी है, जिसका सिनेमा से तो कोई संबंध नहीं है, लेकिन सिनेमा का उससे संबंध जरूर बनाया जाता है। यह आबादी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विपन्नताओं में जी रही है। क्या सिनेमा इन्हें इन सबसे उबार सकता है। शायदनहीं, हां लेकिन सिनेमा एक आइना दिखा सकता है, इन लोंगों के प्रति (जो विपन्न हैं), उन लोंगों को (जो समर्थ हैं)। दुर्भाग्य से भारत में इस तरह की फिल्में बनना बहुत कम हो गई, जो सामाजिक क्रांति का बिगुल बजा सकें। अगर इस तरह की फिल्में बनती भी है तो क्रांति की उष्मा क्षण भंगुर होती है। भारत के मध्यमवर्गीय परिवार के रहन-सहन में अमूलचूल परिवर्तन आए, जिसका असर सिनेमा पर भी पड़ा। विदेशी पृष्ठभूमि या महानगरीय जीवन शैली की फिल्मों को ज्यादा पसंद किया जाने लगा। हम कभी अपने आप से सवाल करें कि हमनें आखिरी फिल्म कौन सी देखी थी, जिसमें ग्रामीण परिवेश झलक मिलती हो। पुराने फिल्मकारों में सच का सामना करने की ताकत हुआ करती थी। इसी बाबत मेहबूब खान मदर इंडिया जैसी फिल्म रच पाने में सफल हुए। सत्यजीत राय ने समाज में घटने वाली हर उस चीज को अपनी फिल्मों में जगह दी, जो वास्तविकता से एकदम नजदीक थी। विमल राय, वी। शांताराम, गुरुदत्त, राज कपूर, ऋषिकेश मुखर्जी जैसे मौलिक सोचने वाले लोग उस दौर में थे, जब भारत में कोई फिल्म स्कूल नहीं हुआ करते थे। इन लोगों ने कम संसाधनों में उम्दा काम किया। ऋषिकेश मुखर्जी की हास्य फिल्में संवेदना से भरी हुई एक सोच को जन्म देती थी। लेकिन आज की हास्य फिल्में अश्लीलता, डबन मीनिंग संवाद से अटी पड़ी है। दर्शक फिल्म देखने के बाद जल्दी भूल जाता है और उससे कुछ भी हासिल नहीं कर पाता। विमल रॉय की दो आंखे बारह हाथ खूंखार कैदियों को मानवीय संवेदना से भर देने वाली फिल्म थी। मदर इंडिया जैसी फिल्में भारत के किसान की गरीबी, सूद एवं जमीदारी प्रथा का भयावह चित्रण करती हैं। बलराज साहनी अभिनीत दो बीघा जमीन, गरम कोट, अपने दौर की महान फिल्मों में से एक हैं। क्यों अब साहिर लुधयानवी जैसे गीतकार नहीं बनते, जिनके लिखे गीतों से तत्कालीन सरकारें बौखला जाती थी और न ही गुरुदत्त जैसे फिल्मकार जो अपनी जिद के आगे किसी की नहीं सुनते थे। ऐसा नहीं है कि अब अच्छी फिल्में नहीं बनती है। हाल ही में आई पीपली लाइव ने दिखा दिया कि साधारण मगर गंभीर एवं हास्य के साथ कही गई बात लोग सुनना पसंद करते हैं। नए युवा फिल्मकारों ने अपने आप को बखूगी साबित किया है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की रंग दे बसंती उस दौर में आई जब तत्कालीन भारत सरकार द्वारा पिछड़ा वर्गों के लिए ज्यादा आरक्षण देने की बात को लेकर नाराज तमाम युवा डॉक्टर एवं इंजीनियर सडक़ों पर आंदोलन कर रहे थे। इस फिल्म के संवाद जिंदगी जीने के दो ही तरीके होते हैं.... ने युवाओं में नए जोश के संचार कर दिया। चक दे इंडिया राष्ट्रीय खेल को लेकर सराहनीय प्रयास था, जिसमें चक दे इंडिया गीत खेलों के लिए राष्ट्रीय गान बन गया। लेकिन इसके बावजूद यह फिल्में दीर्घकालिक क्यों नहीं होती। 21वीं सदी के पहले दशक में हमें जरूरत है, सिनेमा में बेहतर तकनीक के साथ-साथ बेहतर सोच की। अब फिल्में सोची जाती है अंग्रेजी में, लेकिन बनती है हिन्दी में।

Monday, July 26, 2010

नए नहीं है खेल संस्थाओं के झगडे

आजादी से पहले की बात है। भारत में स्विमिंग की दो संस्थाएं काम कर रही थी। नेशनल स्विमिंग एसोसिएशन कोलकाता स्थित संस्था थी। इस संस्था को दुनिया में तैराकी की सर्वोच्च संस्था फीना ने १९३२-३३ में मान्यता दे रखी थी। भारत की दूसरी संस्था भारतीय तैराकी संघ थी, इसे भारतीय ओलिम्पिक संघ का समर्थन प्राप्त था। दोनों संस्थाएं किसी भी बड़ी प्रतियोगिता में अपने -अपने खिलाड़ियों को भेज देती थी। इस तरह दो संस्थाओं की वजह से देश-विदेश में असमंजस की स्थिति पैदा होती थी। दोनों अपने अस्तित्व को बचाने के लिए आपस में टकराती रहती थी। १९४८ में भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के इस मामले में दखल देने के बाद दोनों संस्थाओं को एक करके भारतीय तैराकी संघ बनाया।

इस घटना से यह पता चलता है कि भारत में खेल संस्थाओं के विवाद कोई नई बात नहीं हैं, हालांकि तब जब एक खेल कि दो संस्थाएं अपनी-अपनी दावेदारी पेश करती हों। आजकल हॉकी की संस्थाओं का झगड़ा जगजाहिर है। भारतीय हॉकी संघ एवं हॉकी इंडिया दोनों ही इन दिनों हॉकी पर अपना अधिकार जता रहीं हैं। आईएचएफ को उनके सचिव पर एक निजी चैनल के द्वारा स्टिंग 'ऑपरेशन चक दे' के तहत खिलाड़ियों के चयन के लिए रिश्वत लेते हुए पकड़े जाने पर बर्खास्त कर दिया था। हॉकी संघ के बर्खास्त होने के बाद हॉकी इंडिया बनाया गया, हालांकि कई राज्य हॉकी संघ एवं अकादमी इसके अस्तित्व को सिरे से ख़ारिज कर चुकी हैं। बार-बार इसके सदस्यों और अध्यक्ष पद पर बैठे लोगों पर सवाल किए जाते हैं कि वे सब असवैंधानिक रूप से इन पदों पर विराजमान हैं।

भोपाल में ६३वी रंगास्वामी कप टूर्नामेंट मध्य प्रदेश खेल मंत्रालय व आइएचएफ के तत्वाधान में सफलतापूर्वक आयोजित की गई। इस टूर्नामेंट के होने से हॉकी इंडिया कि भौहें तन गईं। उनका कहना था कि हॉकी इंडिया इस टूर्नामेंट को अवैध करार देती हैं तथा साथ ही साथ किसी भी खिलाड़ी ने इसमें हिस्सा लिया, तो वे उनको बैन कर देंगे। हाल ही में इंडियन हॉकी फेडरेशन ने हॉकी इंडिया में होने वाले आगामी चुनावों पर एतराज जताते हुए कहा कि बिना हॉकी संघ को लेकर चुनाव करना गलत है। यह आइओए, सरकार एवं हॉकी इंडिया की मिली भगत है। इसके खिलाफ हम न्यायालय जाने वाले हैं। इन घटनाक्रम से पता चलता है कि विवाद इतनी जल्दी ख़त्म होने वाला नहीं।

सन १९७१ में भारतीय वॉलीबाल संघ के चुनाव होने के बाद इसके कुछ सदस्य नाराज हो गए और अपना अलग संगठन बना लिया था, लेकिन यह फूट ज्यादा दिनों तक नहीं रही। कई बार देखने में आता है कि खेल प्रशासक अपने निजी स्वार्थों एवं सत्ता कि चाह में खेल का अहित होने देते हैं। हॉकी की दो संस्थाओं कि लड़ाई सिर्फ सत्ता और स्वाभिमान कि लड़ाई रह गई है। इसके बीच में खेल कहां आता है, यह शायद खेल को भी नहीं पता।
इस भीड़ मे आजकल कौन सुनता है !

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