Wednesday, December 10, 2008

ओबामा ओबामा ओबामा

बामा ओबामा , अरे बस करो यार अब , जब देखो हर किसी के मुहँ से यंही नाम सुनने को मिल रहा है ! जैसे ओबामा नही हुए कलयुग में विष्णु के अवतार ने जन्म ले लिया हो जैसे वो अब पूरी दुनिया में शान्ति लायेंगे , दुष्टों का संहार करेंगे और पूरी दुनिया को गरीबी (आर्थिक मंदी) से बचायेंगे ! कम से कम हमारे भारतीय तो उसे देवता का अवतार समझने लगे है ! अगर कोई विदेशी हनुमान की मूर्ती हमेशा अपने पास रखे और गाँधी जी तस्वीर अपने ऑफिस में रखे तो इस पर भारतीयों को उसमे विशेष रूचि होंगी मुझे तो लगता है की इतनी खुशी तो हमें अपने शहर के सांसद के चुनने पर भी नही होती है जितने उसके अमेरिका के राष्ट्रपति बनने पर हुई ये तो वो वाली बात हो गई, बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना !

और वैसे भी आखिर इस ओबामा ने क्या कर दिया है जो सभी लोग इसके पीछे पगलाये हुए है अरे भाई अभी तक उसने बस हमारे नेताओ की तरह बोल वचन ही तो फेकें है जब उस पर अमल होगा तब की तब देखी जायेंगी ! ना जाने कितने ढेरो लेख पढ़े मैंने ओबामा को जानने के लिए लेकिन मुझे तो अभी तक कोई ऐसी बात उसमे नही दिखी सिवाय उनके प्रभावशाली भाषण के ! हमारे भारतीय लेखको ने अखबार रंग दिए, ओबामा के लिए खूब कसीदे पड़े जैसे " भारतीयों को भी एक ओबामा की तलाश " या "भारतीय ओबामा की तलाश " !

और वैसे अब मुझे इन अमेरिकियों से चिड होने लगी है, कि इनको इनका ओबामा मिल गया, साला हमें कब अपना ओबामा मिलेंगा ! पहले बात तो मित्रों ये की अगर हमें अगर भारतीय ओबामा चाहिए तो सबसे पहले ये जितने भी प्राचीन काल के बुढ्डे ठुड्डे ओबामा है इनसे मुक्ति पानी होगी क्यूंकि ये 75 और 80 साल की उम्र हरिमाला जपने की होती है राजनीती की नही, और फिर यह ऊपर जाकर भगवान् को क्या जवाब देंगे की क्यों हमने हरी का नाम एक बार भी नही लिया क्यूँकी हम राजनीती में थे ! इनको हटाने की एक वजह और भी है वो यह की यह देश अब युवायो का है इसीलिए नेता भी अब युवा चाहिए, वो नही जिसके साइन करते टाइम हाथ कपकपाते हो ...इसीलिए युवा नेता हमारे देश की युवायो के विचारों को अच्छी तरह से जानने वाला होगा क्योंकि वो हमारी सदी में पैदा हुआ है इसीलिए आज के हालत से अच्छी तरह वाकिफ है आज की भाषा आज के नियम सब कुछ चेंज हो चुका है तो आज का नेता इससे ज्यादा अच्छी तरह से पहचान सकता है और समाज की क्या डिमांड है उसे महसूस कर सकता है ! वो देश के लिए तार्किक मुद्दे ला सकता हैं जो बस देश के अच्छे भविष्य के लिए हो ना की किसी पार्टी विशेष को नीचा दिखने के लिए (हमारे नेता मुद्दों से दूसरी पार्टियों को घेरते है ) ! और वो भाषण भी ऐसा दे जिससे समाज के अन्दर करंट दौड़ जाए, वैसे नही जैसे हमारे नेता भी देते है जो सन 1947 से बातें शुरू करते है और 1975 के आपातकाल के किस्से सुनाते है तथा पुरानी सरकार से अपनी सरकार की तुलना करते रहते है ! बल्कि अब तो हमें अपने देश की, किसी अच्छे और विकसित देश से तुलना करे !

काश ऐसा नेता मिल जाए रे ," पता नही कैसा दिखता होगा वो कहाँ होगा वो " वैसे तो ऐसे शब्द किसी शादी लायक लड़की के सपने जैसे होते है , पर आज ये पूरे भारत के शब्द है कि किधर है वो ! आज की राजनीती को देखकर निकाह फ़िल्म में सलमा आगा का गीत की लाइन याद आ गई की " शायद उनका आखिरी हो ये सितम, हर सितम ये सोच कर सहते रहे "

अब आजा कहाँ छुपा है तू मेरे ओबामा

Wednesday, December 3, 2008

दो निशानेबाजों की कहानी !

इस लेख की प्रेरणा मुझे मेंरे मित्र से चर्चा की दौरान मिली जिसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि निशानेबाजों में भी फर्क होता है !
दरअसल दो निशानेबाज जिनमे से एक ने अपने देश का नाम ऊँचा किया तो दूसरे ने अपने माँ बाप का नाम ऊँचा किया ! फिर भी दोनों के काम में बहुत बड़ा अन्तर था !

पहला निशानेबाज जिसने ओलिम्पिक्स में भारत के लिए पहला व्यक्तिगत गोल्ड मैडल जीता , और पूरे देश को गौरवान्वित होने का मौका दिया और पूरे देश ने उसे पलकों में बिछा लिया , हमारे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने उस निशानेबाज को फ़ोन कर बधाई दी बल्कि उनसे और उसके परिवार से भी मिले बाकायदा सभी का वीआईपी जैसा स्वागत हुआ , और तो और सारे राज्य उसपर वारें जा रहे थे कोई देता उसे 5 लाख तो कोई 10 लाख कुल मिलकर पुरस्कारों की कीमत पहुँची ३ करोड़ तक साथ ही विज्ञापन मिले अलग से !

हमारा दूसरा निशानेबाज एक कमांडो है उसने भी देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया वो भी अपने देश लिए जान पर खेलकर लाया आजादी ! एक ऐसी आजादी जिसमे भारत के लोगो को दिया हौंसला और दी एक ऐसी आशा जिसमे किसी के सपने ना मर सके ! उसे भी पुरस्कार मिला वो भी 5 लाख का ! उसके पास किसी प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का फ़ोन नही आया और ना ही उसके परिवार से कोई मिला और जो मिलने भी गया उससे भी उसे मिली गाली !

क्या इस देश में स्वर्ण पदक की कीमत 3 करोड़ है जबकि जान की कीमत के लगते है सिर्फ़ 5 लाख ? क्या इस देश में स्वर्णपदक अब देशभक्ति से ज्यादा मायने रखने लगा है ? क्या यह ये वहीं देश है जिसमे भगत सिंह ने अपनी जान सिर्फ़ इसलिए दी की उनसे प्रेरणा लेकर हजारों भगत सिंह पैदा हो सके और अपने देश पर मर मिटें !

पर क्या अब कोई माँ-बाप अपने बच्चे को आर्मी या देश के लिए मर मिटने को कहेगा ? जिस देश में देशभक्तों का ऐसा सम्मान होता है , जिस देश में सरकार बचाने के लिए सभी दलों के लिए रात्रि भोज का आयोजन किया जाता है परन्तु जवानों के लिए ढंग के बुलेटप्रूफ जैकेट नही मिलते ! जवानों के ताबूतों पर घूस खाई जाती है ! नही शायद अब नही कोई कहेंगा की बेटा जाओ और देश की रक्षा करो !

पर जाते जाते एक बात की अभिनव और संदीप, इन दोनों की निशानेबाजी में एक बहुत बड़ा अन्तर ये था कि संदीप जिस चीज को निशाना लगा रहे थे उन्हें पलटकर गोलिया का जवाब भी मिल रहा था परन्तु अभिनव के साथ ऐसा कुछ नही था !

Tuesday, December 2, 2008

प्रसून जोशी की बेहतरीन कविता इस बार नहीं !

इस बार नहीं

इस बार जब वह छोटी सी बच्ची
मेरे पास अपनी खरोंच लेकर आएगी
मैं उसे फू-फू करके नहीं बहलाऊंगा
पनपने दूंगा उसकी टीस को
इस बार नहीं

इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखूंगा
नहीं गाऊंगा गीत पीड़ा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूंगा
उतरने दूंगा गहरे
इस बार नहीं

इस बार मैं ना मरहम लगाऊंगा
ना ही उठाऊंगा रुई के फाहे
और ना ही कहूंगा कि तुम आंखे बंद करलो,
गर्दन उधर कर लो मैं दवा लगाता हूं
देखने दूंगा सबको
हम सबको
खुले नंगे घाव
इस बार नहीं

इस बार जब उलझनें देखूंगा,
छटपटाहट देखूंगा
नहीं दौड़ूंगा उलझी डोर लपेटने
उलझने दूंगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं

इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊंगा औज़ार
नहीं करूंगा फिर से एक नई शुरुआत
नहीं बनूंगा मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूंगा ज़िंदगी को आसानी से पटरी पर
उतरने दूंगा उसे कीचड़ में, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पे
नहीं सूखने दूंगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूंगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूंगा उसे इतना लाचार
की पान की पीक और खून का फ़र्क ही ख़त्म हो जाए
इस बार नहीं

इस बार घावों को देखना है
गौर से
थोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फ़ैसले
और उसके बाद हौसले
कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया है
-- :
प्रसून जोशी
इस भीड़ मे आजकल कौन सुनता है !

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